Book Title: Patitoddharaka Jain Dharm
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 217
________________ कवीर। RISHDHDHRADUN iii.niuDHINDISUDHEEu. aummaNHIBIHIMIRILMIBIHICISH.DIR [२०३६ उनके निकट ब्राह्मण, शूद्र बराबर थे। इस विषयमें उनका कहना था काहेको कीजे पांडे छूत विचारा । तिहि ते अपना संसारा॥ हमरे कैसे लोहू, तुम्हरे कैसे दक्ष । तुम कैसे बांमन पांडे, हम कैसे सुद ॥ छूति छूति करता तुम्हहीं जाये। तो गर्भवास काहेको आये ॥ जनमत छूति मरत ही छूति । कहं 'कबीर' हरिकी निरमळ जोति ॥ सच है जब बडेसे बडे छूत-ब्राह्मणादिको जन्मते और मरते मछूतके बिना गति नहीं मिलती, तब व्यवहारिक कल्पनाके आधारपर उनसे घृणा करना और अपनी जातिके मदमें अंधे होजाना उचित नहीं कहा जा सक्ता । एक तत्वदर्शीको जाति मद हो ही नहीं सक्ता ! तत्वदर्शी जैनाचार्य भी तो यही कहते है:-- "छोपु अछोपु कहे वि को बंचउ। मई जहं जोवउं तई अप्पाणउ ।। छूत अछूत कहकर किसकी वंचना करूँ ? मैं जहां जहां देखता हूं वहां आत्मा ही आत्मा दिखाई पड़ती है। वस्तुतः संसारी जीव मात्र में दर्शन-ज्ञानमई आत्मा विद्यमान है। शरीर पुदलको देखकर उसे कैसे भुला दिया जाय ? धर्मविज्ञान तो तात्विक दृष्टि प्रदान करता है और उसीसे मात्माका कल्याण होता है। कबीरने

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