Book Title: Patitoddharaka Jain Dharm
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 212
________________ R e - ... मा. . . . १९८] पतितोदारक जैनधर्म । णोंको अपनी जातिका अभिमान है तो यह मूर्तिको अपने पास बुला में, मुझे कोई आपत्ति न होगी। मेरे देवता मुझसे रुष्ट होंगे तो वहा चले आयेंगे।" रैदासकी अंतिम बातपर ब्राह्मण मी राजी होगये । वे वेद मंत्रोंका पाठ करने में दत्तचित्त हुए-सब क्रियाकाण्ड उन्होंने कर डाला, पर मूर्तिके वहा कहीं भी दर्शन न हुये । अब रैदासका नंबर माया । रैदासने एकाग्रचित्त हो यह राग अलापा - "देवाधिदेव ! आयो तुम शरणा; कृपा कीजे जान आफ्नोजना !" ___ राग पूरा भी नहीं हुआ था, कहते हैं उसके पहले ही मर्ति रैदासकी गोदमें आ बैठी ! ब्राह्मण हत्प्रभ हुये। रैदासका यह प्रभाव देखकर राजाकी रानी झाला उनकी भक्त होगई ! उसके बाद और मी अनेकों उनके भक्त हुये । रैदासने अपने सदुद्योगसे ब्राह्मणों के सिरसे जातिमूढताका भूत उतार दिया ! एक चमार लोगोंद्वारा मान्य हुमा, यह सब गुणोंका माहात्म्य है। इसलिये विवेकी पुरुषोंको जाति कुलका घमंड नहीं करना चाहिये। [५] कीर x बनारसमें नरी जुलाहा और उसकी पत्नी नीमा रहते थे। मुसलमान होनेके कारण लोग उन्हे ' म्लेच्छ ' कहते थे। कबीर उन्हींका बेटा था। वह था जन्मसे जुलाहा और काम मी करता •'भक्तमा मोर 'हिन्दी विश्वकोष' मा०४ पृष्ठ २८-३२ केभाधारहे।

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