Book Title: Patitoddharaka Jain Dharm
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 210
________________ + ......पत्तिोदारवानपर्य। . aniantertainment ......... ... ................. शिमाल होता है उसे अपनी जातिका आममान रहा इसीलिया उस बमारके घर जन्म लेना पड़ा। मी काही कि चंपारीक मारक लिही पुण्यात्मा उनी जम्मा था। रदास अपनी थोडी-सी आमदनी-रोटी दाल भरके पैसे कमाने ही संतुष्ट था ! अपनी उस दशाका वह दरिदती नहीं समझती था। सचमुचरिती और धनसम्परताको सम्बन्चे मनस है। तृष्णारहित भाचिन्य, लखपतीस लाख दो सुखी होता है। दौसकी तृष्या नहीं थी। इसीलिये वह अभी भोड़ी सी कमाईमें खुश थी और उसने मी दोन पुण्य कर लेती था। एक रोज एक सन्त उसके यहाँ आये। उन्हें रासकी गरीबी पर सरस नागया । एक पारसमाण उनके पास भी। सन्तने उसे रैदासको देना चाहा। रैदासने अनमनें भावसे उसे लेकर अपने छप्पर धुरस दिया । सन्त कुछ दिनों बाद फिर आया। रैदासकी वहीं होनावस्था देखकर उसे आश्रय हुआ। उसने पूछा- रदास । पारसा तुम क्या किया।" रैदासमें उत्तर दिया-"यही इस छप्पर, घरस दिया था।" सत रैदासको निस्पृहता और संतोषको देखकर आश्रयंचकित हो बोला- भाई ! तुम विवेको हो । लक्ष्मीकी चंचलताको जानते हो, इसलिये उसके लिये मोह नहीं रखते, पर माई, पुण्यसे जो स्वयमेवं मिले उसका उपयोग करो, तुम अभी गिरस्वी हो।" रैदासने संतके कहनेसे आवश्यक्तानुसार पन लिया, परन्तु उसे गाडेकर नहीं रक्ला और न मोजलीको मना ननस

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