Book Title: Patitoddharaka Jain Dharm
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 209
________________ [१९५ "मुखपर उसका उज्ज्वल भविष्य प्रतिबिम्बत था । रामानन्दने उसका नाम रैदास रख दिया ! रैदास खेलता-कूदता बड़ा होगया । उसका ब्याह एक चमार कन्यासे कर दिया गया। पति-पत्नी आनन्द से रहने लगे । रदास । Harisisadusama रैदास जूते बनाने और बेचनेका काम करने लगा; किन्तु और चमारोंसे उसमें एक विशेषता थी। वह बड़ा संतोषी था और साधु संतों के प्रति उसके हृदयमें भक्ति थी । जब कभी वह किसी फकीर को अपने घर के सामने से निकलता देखता, वह झटसे उसे लिवा लाता और बड़े प्रेमसे बढ़िया जूता उसके पाँव में पहना देता । ग़रीब माता-पिता के लिये रैदासकी यह उदारता असह्य होगई । एक रोज़ माँने कहा- 'बेटा ! इन भिखमंगोंमें ऐसे धनको लुटाओगे तो गृहस्थी कैसे चलेगी ? अब तुम सयाने हुये, जरा समझसे काम लो !' रैदास माँका उलहना सुन मुस्करा कर घरमें एक ओर भाग गया और अपना उदार व्यवहार न बदला । 1 रैदासके बापने सोचा, यह ऐसे नहीं मानेगा । उसने खासकी अक्ल ठिकाने लानेके लिये उसे घर से अलग कर दिया । घरके पिछवाड़े मढ़या डालकर रैदास अपनी पत्नी के साथ रहने लगा और जूते बना- बेचकर अपना गुजारा करने लगा; किन्तु इस अर्थ संकटापन्न दशामें भी उसने अपनी उदारतामय बात न भुलाई । वह भुलाई भी कैसे जाती ? मनुष्य संस्कार सहज नहीं मिटता और शुभ संस्कार तो पूर्वजन्मकी अच्छी कमाई ही से मिलता है । रैदास जीवने पूर्वभवमें धर्ममय जीवन विताया कि उसे अच्छा सा स्वभाव मिला;

Loading...

Page Navigation
1 ... 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220