Book Title: Patitoddharaka Jain Dharm
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 207
________________ T Tanus Bandanangisand + दान देनेने उसे बड़ा मार्ननंद आता था । सपुरुषों और विद्वानास चर्चा- बांती करनेमें वह जितना रस अनुभव करता यो उतनी रखें वई संगीत नहीं पाती थी । सत्संगति करते करते वह बहुत उठ गई, लोग उसे धर्मी देवी' समझने लगे । 7 उस समय बल रिंगण और अद्दकलिगच्छके दिगम्बर जैनाचार्य प्रसिद्ध थे । चामेक एकशे व उनके पास पहुंची और चरणों शीश नमाकर उन आचार्यसे उसने विनय की कि 'प्रभो ! मैं बड़ी अभागिन हूं जो एक गणिकाके गृह में मेरा जन्म हुआ; किंतु धन्यबाद है सम्राट् अम्मको जिन्होंने पापपकमे निकालकर मेरा उद्धार किया । प्रभो ! मुझे आत्मकल्याण करनेका अवसर प्रदान कीजिये ।” 14 " १२ आचार्य ने कहा- "मेक ! तुम 'अमागिन नहीं सौभं म्यवती हो। जानती हो, रत्न कैसी भद्दी और भौडी जगहसे और कैसे मैले रूप में निकलते हैं? वही रत्न राजा-महाराजाओंके शीशपर शोमते हैं।" चामेक- "नाथ ! आप पतितपावन हैं, मुझे जैनधर्मकी उपासिका बना लीजिये ।" " आचार्यने बड़े हर्ष और उल्लामसे चामेकको भावकके व्रत प्रदान किये। अब चामेक ' श्राविका चामेक' नामसे प्रसिद्ध होगई और वह अपने नामको सार्थक करने के लिये खूब दान पुण्य और धर्मकार्य करने लगी। उस समय के प्रसिद्ध जिनमंदिरं सर्वलोकाश्रयजिनभवन" के लिये उसने मूल संघ के सहन्दि आचार्यको दान दिया। इससे उसकी निर्मल कीर्ति दिगंतपापी होगई । सचमुच उसे समय जैन मंदिर वास्तविक जैन मंदिर थे वह सर्वाक अभियये। १३.

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