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१९२] पतितोदारक जैनधर्म । ध्यकी चित्तशुद्धि उसमें अचिन्त्य परिवर्तन का उपस्थित करती है फिर वह चाहे पुरुष हो या ली ! इससे कुछ मतलब नहीं । चित्तशुद्धिको प्राप्त करनेकी योग्यता मनुष्य मात्रमें हैं ।
दक्षिण भारतमें ईस्वी ६वीं-७वीं शताब्दियों के मध्य चालुक्य वशी राजा विजयादित्य-अम्म द्वितीय राज्य करते थे। वह एक वीर और धर्मात्मा राजा थे । ब्राह्मणोंपर अत्यधिक सदय होते हुये भी उसने जैनधर्मके उत्कर्षके लिये दान दिया था। उस धर्मात्मा राजाने अपने समयकी प्रसिद्ध वेश्या चामेकको देखा । अन्य वेश्यायें उसके सम्मुख न-कुछ थीं। वे कुमुदिनी थीं और चामेक उनके लिये सूर्य । निस्सन्देह सौंदर्यकी वह मर्ति थी । अम्मने उसे देखा। उन्हें यह न रुचा कि उनके राज्यका सर्वोतम सौदर्य योंही बाजारू वस्तु बना रहे । उन्होंने उसका मुख्य आका और उस नयनाभिराम रूपको अपने राजमहलों में स्थान दिया।
चामेकको राजाकी प्रेयसी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वह थी भी इसी योग्य । रूप ही नहीं गुण भी उसके पास थे । विद्याकला और नीति चातुर्य में वह अद्वितीय थी।
, खरबूजेको देखकर खरबूजा २ग पर टता है। पारसकी संगतिसे लोहा सोना हो जाता है। चा क धर्मात्मा अम्मकी संगति पाकर बहुत कुछ बदल गई। अब उसका सारा समय बनाव-शृङ्गारमें ही व्यतीत नहीं होता था। उसका, हृदय कोमल था और चरित्र पवित्र ! अन्य वेश्याओंके समान धर्मधनको लुटाकर द्रव्यधनको लेने में उसे मजा नहीं आता था। वह धर्मधनको संभाले हुये थे और द्रव्यधनको लुटानेमें