Book Title: Patitoddharaka Jain Dharm
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 213
________________ . . . . . . . कबीर। था जुलाहेका, परन्तु उसे ज्ञानकी बातें करनेमें मज़ा आता था। इसे उसका पूर्वभवका शुभ संस्कार कहना चाहिये । उस समय बनारसमें वैष्णव सन्यासी गमानन्द प्रसिद्ध थे । कबीरने उनका नाम सुना । वह उनका शिष्य बनने के लिये आतुर हो उठा । किन्तु उसके पड़ोसी हिन्दुओंने कहा कि 'पागल होगया है-तू म्लेच्छ-तुझे रामानंद कैसे अपना शिष्य बनायेंगे ?' कबीर इससे हताश न हुआ। एक दिन उसके जान पहचानके हिन्दुने एक उपाय बताया-कबीरने वही किया । रामानंद अर्द्धरात्रिको गगास्नान करने जाते थे। कबीर रात होते ही उनके दरवाजेपर जा पडा । रामानंद ज्योंही निकले उनके पैर कबीरके शरीरसे लगे, कबीरने उन्हें चूम लिया । रामानंद हड़. बड़ाकर बोले- राम ! राम ! कौन रास्तेमें आ पड़ा!' कबीरने यही गुरुमंत्र समझा । रामानंद गंगाको गये और कबीर अपने घर ! जबतक मनुष्यको अन्तर्दृष्टि नहीं मिलती वह बाहरी क्रियाकाडमें ही धर्म मानता है; यद्यपि वह होता उससे बहुत दूर है। गंगास्नानकी बात भी ऐसी ही है। गंगाजल निर्मल है, श्रेष्ठ है, शरीर मल धोनेके लिए अद्वितीय है; किन्तु उससे अंतरका मैल, क्रोधादि कषायोंका मिटना असंभव है। क्रियाकाण्डी दुनिया इस बातको जान ले तो उसका कल्याण हो । कबीरने इस सत्यको जान लिया था। इसलिये ही उसने कोरे क्रियाकाण्डका विरोध किया था। खैर; कबीरने अब अपनेको रामानन्दका शिष्य कहना प्रारम्भ कर दिया। हिन्दु यह सुनकर आश्चर्य करने लगे और उनसे अधिक

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