Book Title: Patitoddharaka Jain Dharm
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 211
________________ DonununHDIOH.nium . [२१७ MORE खर्च किया । उस रुपयेसे उसने मंदिर और धर्मशाला बनवाये । अलबत्ता उसने अपना घर भी पक्का बनवा लिया और उसको मूर्ति पधराकर भगवान् रामकी उपासना करने लगा। रूढ़िके दास हुए मनुष्य विवेकसे काम लेना नहीं जानते । र्णाश्रमधर्मके अन्धभक्त ब्राह्मणोंने जब यह सुना कि एक चमार मतिको पधराकर उसकी पूजा कर रहा है तो उनके दिमागका पारा ऊंचे आस्मानको चढ़ गया। क्रोधमें भरे हुवे वे राजाके पास ही शिकायत लेकर गये । राजाने रैदासको बुला भेजा और फूछा कि "क्या तुमने मर्तिकी स्थापना की है।" रैदासने उत्तरमें मूर्ति स्थापनकी बात स्वीकार की। राजाने कहा-" यह बात तो नई है।" रैदास बोला-" महाराज ! संसारमें नया कुछ भी नहीं है-- दृष्टिका भेद ही नये-पुरानेकी कल्पना डालता है। हां, कोई भी काम हो, बुरा न होना चाहिये । देवकी आराधना करना क्या बुरा राजा-" बुरा तो नहीं है; परन्तु ये ब्राह्मण कहते हैं कि चमार मूर्तिकी पूजा नहीं कर सक्ता।" रैदास-" महाराज ! यह इनका भ्रम है। जातिसे कोई जीवात्मा अच्छा पुरा नहीं होजावा-मला बुरा तो वह मच्छे बुरे काम करनेसे होता है। उसपर मर्ति तो ध्यानका एक सायन मात्र है। सके सहारेसे आराध्य देकके दर्शन होते हैं। यह सामना पीक मनाय त्यो नजरें। इसपर भी बाबच । प्रविन मास -- - -- - - -

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