Book Title: Patitoddharaka Jain Dharm
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 208
________________ BIRDSIMIMINISHODailuuuNUARMADHURIMOO u 0/IMINISIA १९४] ...... पक्तिोद्धारक जैनधर्म । सारा ही लोक उनमें शांतिमई विश्राम पाता था। श्राविका चामेकने एक दानशाला खुलवाई, अम्मने उसके सम्मानके लिये अपना नाम उसके साथ जोड़ दिया। चामेक इन धर्मकार्योको करके कृतकृत्य हुई । अम्मद्वितीयने एक ताम्रपत्र खुदवाया और उसमें चामेककी कीर्ति-गरिमाको सुरक्षित कर दिया। वह ताम्रपत्र आज "कुलचुम्बाई दानपत्र" के नामसे अभिहित है। उसमें लिखा है कि "चामेक सम्राट् अम्मकी अन्यतम प्रियतमा और वेश्यायोंके मुखसरोजों के लिये सूर्य तथा जैन सिद्धान्तसागरको पूर्ण प्रवाहित करनेके लिये चन्द्रमाके समान है। उसे विद्वानोंपे धर्मो देश सुननमें बहुत आनंद आता है ! ऐसी थी वह जन्मकी वेश्या ! धर्मको उसने अपनाया, उसे महत्वशाली समझा और धर्मने उमे महान् यश और सुख प्रदान किया । साधु लोग भी उसके गुणों की प्रशसा करने लगे। सचमुच - "बड़ो अपावन ठऔर 4, कंचन तन न कोय !" [४] . रैदास ।* चमारोंके मुरले एक छोटामा बालक खेल रहा था । एक एक हिन्द सन्यासी उधा आ नि ले । उनका नाम रामानन्द था । बालक दौड़ता हुआ गया और उनके कग लोट गया । गमानंदन उसे गौरसे देखा । या तो वह जन्मका चमार, परन्तु उसके सुन्दर * भक्तमाल' के माध रस ।

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