Book Title: Patitoddharaka Jain Dharm
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 200
________________ पतितोद्धारक जैनधर्म । अपनी एक कामना पूरी करवाना चाहती हूं। क्या तुम पूरी कर सक्के हो ?" १८६ ] stero " क्यों नहीं ! तुम्हारा यह दास दुनियांकी सब चीजें लाकर तुम्हारे चरणोंपर रख सकता है । निशक होकर अपनी इच्छा बतलाओ !" 61 • सचमुच 2 " "हां, सचमुच ! " 44 अच्छा; तो यहाकी परमसुन्दरी रानी - तुम्हारी भावज जो बहुमूल्य गहने पहनती हैं, एकबार उन गहनोंको पहनने की इच्छा मुझे बहुत दिनोंसे है । क्या उन्हे लाकर मुझे दोगे ?" Lo भवश्य ! "" बेमनाने कहने को तो 'अवश्य' कह दिया, परन्तु वह मांके समान अपनी भावजसे यह बात कैसे कहें ? हिम्मत न हुई ! वह अनमने होकर एक पलंगपर जा पड़े ! भोजनकी बेला हुई, सबने स्वाया; परन्तु वेमना न गये। नौकरोंने ढूँढा । फिर भी वेमना नहीं मिले। आखिर भावज स्वयं ढूँढने गई उन्हें मिल गये । मर्यान्वित हो उन्होंने कहा: " वेमना ! तुम क्या कर रहे हो ? सबने भोजन कर लिया और तुम यहीं पड़े हो ? चलो, भोजन करो !" " मुझे आज भूख नहीं है 46 क्यों नहीं है ? "" " ऐसे ही ! " 46 बताओ तो सही ! " 32 /

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