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महात्मा कर्ण। [१२७ किन्तु कुन्ती प्रसन्न न हुई। कोशिस करने पर उसे कुछ ढाढस जरूर बंधा । आखिर पाण्डुसे विदा होकर वह राजमहलको गई। उस समय दोनों प्रेमी एक दुसरेको लौट लौटकर देखने जाते थे !
(२) 'धाय मा, अब मेरी लाज तुम्हारे हाथ है ' कहा कुन्तीने । उसकी धायको उससे मा जैसी ममता थी। उसने आश्वासन भरे शब्दोंमें कहा-'बेटी, घबड़ाओ नहीं। यह संसार दुर्निवार है । तुम भोलीभाली पुरुषोंकी बानोंको क्या जानो !'
पर मा, राजेन्द्र पाण्डु मुझे लिगले जानेका वचन देगये थे!' बात काटकर कुन्ती बोली।
धायने गहरी सांस लेकर कहा-'बेटा ! राजाओंको बड़े २ गजकाज लगे रहते है-वह जो न भूल जाय वह थोड़ा।'
कु०- तो क्या मा, पाडुने मुझे भुला दिया ?' __ धा०- यह कैसे कह बेटी ? पर एक बात निश्चित है कि पुरुष होने बड़े स्वार्थी और पाखण्डी है। स्त्रियोंकी मान मर्यादाका मूल्य वह नहीं आते। वे तो हमें अपने विषयभोगकी सामग्री समझने है ।' ___ कु०-'होगा मा, किन्तु पाण्डु ऐमे पुरुष नहीं है। वह मेरा समुचित मन्मान करते है, वह मुझल कैमे गये ?'
धाc- बेटी : धीरज धो। यह दुनिया बडी ठगनी है । इसमें जो चमकता है यह सब मोना ही नहीं निकला।'
कु० तुम धीजकी कहनी हो पर ..