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दूगा। गम् ! मैं अपने पिता नामको कलंकित नहीं लेकिन उज्ज्वल करूंगा।'
उपस्थित लोगोंने सेठ महीधरके पुत्र श्रीगुप्त के इस निश्चयको' सुनकर दातों तले उंगली दबा ली, किन्तु राजा नलपर इसका कुछ भी असर न हुमा । उसे अच्छी त-ह मालूम था कि श्रीधर चोरी करनेका बेहद आदी होगया है । वह एक नम्बरका जुआरी है। इसलिये उसके अतिसाहसकी निस्माता प्रगट करने के लिये उन्होंने अग्निचिता बनाये जाने की आज्ञा देदी । श्रीगुप्त वैसा ही दृढ़ रहा। चिता तैयार हुई। राजाने परीक्षा देनेकी आज्ञा दी। श्रीगुप्त बेधड़क हो अमिमें प्रवेश कर गया !
जब वह अमिसे बाहर निकला तब उसका शरीर कहीं जरासा भी नहीं जला था। लोगोंने उसकी 'जय' बोली ! राजा यह देखकर परेशान हुआ। दरबार बरखाम्त होगया! श्रीवर निडर होकर अपने चौर्यकर्म और द्यूतव्यसनमें लीन होगया । लोग कहने लगे, वह जाद. गर है!
— आज फिर वही अपराध : जानते हो चोरीकी सजा ? प्राणदण्ड ?"
'मुझे उसका डर नहीं मैं निर्दोष हूं !' श्रीधरने कहा।
रामा बोले-'आज सारी चैजयन्ती तुम्हारे दोषको पुकार पुकार कर कह रही है। अब तुम निहों। कैमें ।
श्रीघर-'राजन् ! यदि मैं नि। नहीं तो अग्नि मुझे जला म.रेगी !'