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राजर्षि मधु ।
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राजा मधुने मस्तक नमा दिया वस्त्राभूषण उतार फेंके। पांच मुट्ठियोंसे बालोंको उखाड़कर उन्होंने शरीरसे निर्ममता और आत्मशौर्यको प्रकट किया। विमलवाहन महागजने उन्हें मुनिदीक्षा दी। उपस्थित मंडलीने जयघोष किया, मधु मुनियोंकी पंक्तिमें जा विरामान हुये !
बेचारी चन्द्राभा आसू बहाती अकेली खड़ी वह सब कुछ देख रही थी; किन्तु आजकलकी तरह उसे दर दर भटकने और और अधिक पाप कमानेके लिये नहीं छोड़ा गया था। वह योग्य अवसरकी प्रतीक्षा थी। अवसर पाते ही उसने भी दीक्षाकी याचना की ! आचार्य महाराजने कहा
"बेटी ! तेरा निश्वय प्रशमनीय है. स्त्रियाँ भी धर्माचारका पालन करके पापके संतापसे छूट सक्ती है ।"
उपरान्त चन्द्रामा भी अर्यिका होगई, कालीनागिनसी अपनी लम्बीर केशरश्मियोंको उसने - परको संतापदायक जानकर नोंच फेंका ! शरीरसे निष्पृह हो वह तप तपने लगी !
मुनि धारण करके मधुने उग्रोग्र तपश्चरण किया । वह अब निरतर आत्मोद्धार और लोकोद्ध ' कानेमें लग गये । आखिर कृशकाय ढोकर वह विहारदेशकं प्रसिद्ध तीर्थ सम्मेदशिखर पर्वत (पार्श्वनाहिल) पर आ विजे। अपने अतिम समय में उन्होंने विशेष परिणाम विशुद्धिको प्रकट किया और समाधि द्वारा शरीर छोड़कर ११ वें आरण स्वर्ग में देव हुये ! परदारगलटी धु धर्मकी शरण में आकर अतुल पोर्य का भोक्ता बना औ महाम प्रद्युम्न
का श्रीकृष्ण नारायणका प्र
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