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राजर्षि मधु ।
(१)
6 आह ! वह घर, वह माताका प्यार, पिताका दुलार, बचपनके साथियोंका सलौना संग, बौर आह ! वह चुतागार ! अब कभी देखने को नहीं मिलेगा ! अरे सिपाहियो ! जरा मुझपर करुणा लाओ, दो घड़ी इस प्यारी वैजयन्तीकी शोभा तो देख लेने दो ! अच्छा भाई ! नहीं ठहर सक्ते तो न सही-लो, मैं यह चला । अरे ! यह कौन ? माताजीकी पालकी है ! अब ममता जताने आई है । आने दो, इसे भी ! रोती क्यों हो, मा ! ममता थी तो क्यों नहीं छुड़वा लिया पितासे कह कर ! अच्छा, मैं पापी हूं-दुराचारी हूं। मुझे जाने दो जहन्नममें । मेरा समय खराब क्यों करती हो ? यह क्या ? इसे लेकर क्या करूंगा ? परदेशमें पुरुषार्थं काम देगा। खैर, लाओ । लो, अब जाता हूं ! सिपाहियो ! क्यों नाक में दम किया है। अब श्रीधरकी छाया भी तुमको नहीं मिलेगी। पर यार ! एक बात ठीक २ बताओ । वह बदमाश कुशलिन किधर गया ? सालेने चार पैसे के लोभ में मेरी आवरू मिट्टी में मिला दी ! सालेका खून पीऊंगा, तब मुझे चैन मिलेगी। अच्छा, इधरको गया है तो मैं भी इधर ही जाऊंगा |
Lamina
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श्रीधर यूंही बड़बड़ाता हुआ वैजयन्तीको सदाके लिये छोड़कर चल दिया । वह कुशलिन मंत्रवादीको उस ओर गया जानकर बेतहाशा उघरको चला गया। सूरज छिपते २ वह राजपुर जा पहुंचा और वहीं कहीं पड़कर उसने रात बिताई।
( ४ )
गजपुरके चौराहे पर अगर भीड़ थी । एक कुशल मत्रवादी