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१७.] पतितोदारक जैनधर्म ।
तिलकाने कहा- पिताजीसे पूछ लिया है ? उसपर मैं जन्मकी भीलनी-तुम्हारे रनवासमें मेरा कहां ठिकाना ?'
उपश्रेणिकने तिलकाके कपोलोपर प्यारका चपत जड़ते हुये कहा-'अभीतक पिता और जातिके भयमें ही पड़ी हो । लो, तुम्हारे पिताको आज राजी कर लूंगा । और भीलनी हो सो क्या ? हो तो गुणवती ! कौन तुम्हें देखकर आर्य कन्या नहीं कहेगा ?
तिलका- मुझे तो कुछ भी भय नहीं है। परन्तु सोचो तो, आपकी क्षत्री-रानी मेरेसे कैसा व्यवहार करेंगी 2'
उप० - मेरे रहते तुम्हारा कौन अपमान कर सक्ता है ।
उपश्रेणिकने वात भी पूरी नहीं कर पाई कि भील सरदार वहा पहुंचा। तिकका सहम गईं; परन्तु उपश्रेणिकने तिलकाके विवा. हका प्रस्ताव उसके सन्मुख उपस्थित कर दिया।
वह वोला-'मैं भील, तुम मगध के राजा ! मेरा तुम्हारा सम्बन्य कैसा ?'
उपश्रेणिकने कहा-'भूलते हो सरदार ! हम तुम हैं मनुष्य ही। मनुष्योंमें कोई तात्विकभेद नहीं है, गुणोंकी हीनाधिकता और राष्ट्रव्यवस्था के लिए वर्ण-जाति आदिकी कल्पना करली गई है। तुम्हारी कन्या गुणवती है, उसे ग्रहण करनेमें मुझे गौरव है। शास्त्रकी भी आज्ञा है कि 'किं कुलु जोइज्जइ भकुलीणवि थीरयणु कहलइ ।' अर्थात् कुलका क्या देखना ? यदि कन्या अकुलीन भी स्त्री रत्न हो तो उसे ग्रहण कर लेना चाहिये । तीर्थकर चक्रवर्ती श्री शान्तिकुन्यु मादिने स्वयं म्लेच्छ कन्यामों तकको ग्रहण किया था। चरमशरीरी