Book Title: Patitoddharaka Jain Dharm
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 178
________________ IDIOIDur.ni.Inn. -MITHUNUHUNUHUROHUDAI १६२ ] पतितोद्धारक जैनधर्म । राजा-मच्छा, तुम्हारी यही इच्छा है तो हमें कोई विरोध नहीं।' किन्तु श्रीधरके मुखपर आज निर्भीकता नहीं थी। अमिचिता सैयार हुई । श्रीधरने उसकी लाल लपटोंसे अपना हाथ छुमाया, वह झुलस गया। उसकी हिम्मत काफूर होगई । चिता धू-धू करके जल रही थी; किन्तु श्रीधर मुंह लटकाये खड़ा था। राजाने कड़क कर कहा- श्रीधर ! तुम निरपराधी हो तो अब अमिमें प्रवेश क्यों नहीं करते ? तुमने स्वयं यह परीक्षा देना कबूल की है ?' श्रीधर- कबूल की थी राजन् ! मत्रवादके बलपर ! किन्तु आज दुष्ट कुशलिन्ने मुझे धोखा दिया है !' राजा-कुशलिन् कौन ? श्री०-'कुशलिन् एक मत्रवादी है। मैं अपराधी हूं, मैने चोरिया की हैं. जुआ खेला है, उसके मंत्र की सहायतासे मै मागको धोखा देता आया। किन्तु आन स्वयं रम मत्रवादीने मुझे धोखा दिया। राजन् ! मुझे जल्दी ही प्रणरण्ड देकर इस अपमानमे मुक्त कीजिये। राना- 'छिः श्रीगुप्त ! तुम कितने बुरे हो ! पहले ही तुमने अपना अपराध क्यों नह वी।। कि ? खै', मैं तुमपर फिर भी दया करता है । जाओ तुम आजन्म वैजयन्तीम निर्वासित किये जाते हो।' मिपाही अपराधीको पाकर ले जयन्तीकी जनताने इस नामी चोक पकड़े जानपर नमकी - - ली।

Loading...

Page Navigation
1 ... 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220