Book Title: Patitoddharaka Jain Dharm
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 181
________________ मधु । [ १६५० •garmaniram Santhade वनमें बहुत दूर चले जानेके बाद श्रीगुप्तको एक मुनिराज के दर्शन हुये । वह उनके चरणोंमें बैठ गया। मुनिने तुम कौन हो ? ' पूछा- 'वत्स ! श्रीगुप्तने कहा - ' नाथ ! मैं क्या बताऊँ ? मेरा इस दुनियांमें कोई नहीं है ! ' मुनि- 'वत्स ! तुम ठीक कहते हो, संसारमें कोई किसीका नहीं है । यह शरीर जिसको तुम अपना मानते हो, यह भी तुम्हारा नहीं है । तुम्हारा आत्मा अकेला - शाश्वत- ज्ञातादृष्टा है । तुम्हारे आत्माकी शक्ति तुम्हारी रागद्वेषमयी कषायजनित परणतिने नष्ट कर रक्खी है। संसार में किसपर क्रोध करते हो ? क्रोध करना है तो इस कषायपरणति पर करो । क्रोध, मान, माया, लोभका नाश करो । यही तो तुम्हारे शत्रु हैं ! प्रेम करना है तो अपनी वस्तुसे प्रेम करो जो कभी तुमसे दूर नहीं होगी । तुम्हारी आत्मा ही तुम्हारी वस्तु है, उसका तुम्हारा कभी विछोह नहीं होगा ! उसमें तुममें अन्तर ही नहीं है, बोलो करोगे उससे प्रेम ?' श्री ०. १०- 'नाथ ! जो आप कहेंगे वह करूंगा, संसार में आप ही शरण हैं। मैं हत्यारा हूं, मनुष्यहत्या मैंने की है, यमके दूत मेरे पीछे लगे हुये हैं।' मुनि - अरे भोले ! पाप और यम तो हरएकके पीछे लगे हुबे हैं । इस अनादि संसार में कौन हत्यारा नहीं है ? पर अब नरभव पाकर हत्यारा बना रहना ठीक नहीं है। नरतन सद्गुणोंसे शोभावमान होता है। नीतिका बचन है:

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