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राजर्षि मधु '
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राजर्षि मधु !*
अयोध्याके राजा मधुका प्रताप अतुल था। सब ही राजा उसका लोहा मानते थे। केवल एक राजा था जो उनकी आज्ञा माननेके लिये तैयार न था। मधुको वह शल्यकी तरह चुभता था। उसको वश किये विना उन्हें चैन न पड़ी। ____ अयोध्या चारों ओर धूम मच गई। जिधर देखो उधर मिपाही ही सिपाही नजर आने थे। कोई अपनी तलवार पर शाम धरा रहा था तो कोई ढालकी मरम्मत करा रहा था। कोई योद्धा अपनी प्रेयसीके बाहुपाशमें फँमा विकल होरहा था; तो कोई अन्य अपनी बहादुर पत्नीसे विदा होते हुये हर्षके अश्रु टपका रहा था । आखिर शत्रुपर आक्रमण करने के लिये गमन करनेका दिन आगया !
राजसेना खूब सजधजके साथ अयोध्यासे बाहर निकली। नागरिकोंने उसपर मागलिक पुष्प वर्षाये । राजमाताने राजा मधुको दही चखाया और मुहरसे दहीका तिलक कर दिया। राजमाताकी आशीष लेकर मधु शत्रुविजयके लिये चल पडा ।
मार्गमें वटपुर पड़ता था। वीरसेन वहांका राजा था। महाराज मधुका वह करद था। अपने प्रभूका शुभागमन जानकर उसने उनका स्वागत किया। सब ही भागन्तुकोंकी उसने खुद ही आवभगत की। वटपुरमें उन दिनों खूब चहल पहल रही।
* हरिवंशपुराण पृष्ट १६९ ६ ४२२के माधारसे ।