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राजर्षि
मधु ।
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राजा अधीर था । बोला- उतावली कहां ? महीने से बीत रहे हैं और तुम मुझे प्रत्यीक्षाकी अनिमें भून रहे हो ! '
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मंत्री - ' नहीं, नाथ ! हम इसका उपाय अब शीघ्र करेंगे । ' राजा कामातुर था उसकी बुद्धि नष्ट होगई थी, स्वानापीना उसे कुछ भी नहीं सुहाता था, एकमात्र 'चन्द्राभा, चन्द्राभा' कहकर गरम २ सांसें वह लेता था। मंत्रियोंने उसकी प्राणरक्षाका एकमात्र साधन चन्द्राभाको जानकर उसको प्राप्त करना ही आवश्यक समझा ! ( ३ )
राजा मधुने बड़े समारोहसे विजयोत्सव मनवाया था। उसके राज्यके सब ही राजा, उमराव सपरिवार निमंत्रित किये गये थे मौर सब ही अपने लाव लश्कर महित अयोध्या पधारे थे। खूब दी आनन्दरेलिया होने लगीं। प्रमाने कहा - ' देखो, ये बातें ठीक निकल न ? तब महाराज युद्धश्रमसे आक्रान्त थे; इसी से रूखेर रहे । अब देखो, किस जोशोखरोश से वह उत्सवमें भाग लेरहे हैं । परन्तु राजाके भेदको वह क्या जानें ट
राजा वीरसेन
महीनेभर तक खूब उत्सव हुआ । वटपुरसे और रानी चंद्राभा भी आई थी। राजा उनकी संगतिमें रहकर आनंद विभोर होजाता था । आखिर राजाओंने मधुसे विदा चाही । सबका समुचित आदर सत्कार करके उसने विदा किया। वीरसेनपर अधिक स्नेह जतलाकर उसने उसे रोक रक्खा। राजमहलमें चंद्राभाको विश्राम मिला । कुछ समय बीतनेपर वीरसेनने फिर कहा- 'प्रभो, अब आज्ञा दीजिये। मेरे पीछे न जाने राज्यमें क्या होता होगा ।'
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