Book Title: Patitoddharaka Jain Dharm
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 170
________________ ARIDAIMIUSBusiOSHSMUSLIMBISISM १५४] पतितोदारक जैनधर्म । मधु बोला-'प्रियवर, मैं तुम्हारे वियोगको कैसे सहन करूँगा ! खैर, तुम्हारा जाना आवश्यक है, जाओ भाई ! थोड़े दिन राज्य प्रबन्ध देखकर लौट आना, तबतक चन्द्राभाके वस्त्राभूषण भी बनकर आजांयगे। तब ही मैं रानीकी विदा करूंगा।' राजाका अपनेपर अतिनेह देखकर वीरसेन उनकी बात अस्वीकार न कर सका । चन्द्राभासे जब वह विदा होने लगा तब वह रो पड़ी और आतुर हो कहने लगी- प्रिय, मुझे यहां न छोड़ो, साथ ले चलो, वरन् धोखा खाओगे ! ' किन्तु वीरसेनने उसकी एक न सुनी। वह भोलामाला स्वामीकी भक्तिमें अन्धा होरहा था। उसने कहा--'महाराज मधु धर्मज्ञ हैं। वह ऐसा पाप नहीं कर सक्ते । मैं उनको रुष्ट नहीं करूँगा !' शास्त्रकारका वचन है. 'जो जासु रत्त सो तासु णारि।' सचमुच प्रेम ही वह बन्धन है जो दो शरीरोंको एक बना देता है और दाम्पत्य सुख सिरजता है । जो जिसमें अनुरक्त है वस्तुतः वही उसकी पत्नी है । राजा मधुने चंद्राभा पर अतुल प्रेम दर्शाया । चंद्रामा उस प्रेमके सामने अपनेको संभाल न सकी। दोनों ही प्रेममत्त हो आनन्दकेलि करने लगे। मधुकी मनचेती हुई। चंद्रामा रनवासकी सिरमौर हुई। एक रोज मधु और चंद्राभा महलके झरोखेमें बैठे हुये थे । उन्होंने देखा कि मैला कुचैला फटे कपड़े पहने हुए एक मनुष्य विकाप करता हुमा जारहा है। ज्योंही वह महलके नीचे आया, रानी चंद्रामा उसे देखकर घबड़ा गई । उसका हृदय दयासे पसीज

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