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पतितोदारक जैनधर्म । सुख भोगकर वह शास्वत निर्वाणपदको प्राप्त करेगा। पाप-पकसे निकलकर चिलातीपुत्र धर्मकी गोदमें आया और उसे वहां वह शांति और सुख मिला जो संसारमें अन्यत्र दुर्लभ है।
राजगृहके विपुलाचल पर्वतपर भ० महावीरका शुभागमन हुआ था। लोगोंमें उनकी बड़ी चर्चा थी । सब कोई कहता था कि वह बड़े ज्ञानी है, सर्वज्ञ है. सार्वदशी है, जीवमात्रका कल्याण करनेवाले है । जब गजा श्रेणिक उनकी वन्दनाके लिये गया, नब तो सारा नगर ही उन भगवान के दर्शन करने के लिये उमड़ पड़ा। सेठ धनवाहके लिये यह अवसर सोने सा हुआ। सुखमाका वियोग होनेके बादसे संसार उन्हें भयावना दीखता था। मेठको सत्संगतिमें सान्त्वना मिलती थी। एकान्तमें जब वह अपने जीवनका सिहावलोकन करते तो सिहर उठने, सोचने-'जिम बेटी सुखमाको प्यारसे पाला था उसीको खागया। हाय, मुझसा निर्दयी कौन होगा ?' यह मोहका माहात्म्य था, किन्तु दूमरे क्षण विवेक आकर कहता• भूलने हो; बेटी कहा ? वह तो पुद्गलपिड मात्र था। शरीर आत्मा नहीं है।' इस विवेकके माथ ही सवेग भाव उन्हें सत्संगति करनेकी प्रेरणा करता था। अत सेट धनवाह भी वन्दना करने गये । भ० महावीरके अपूर्व नेज और ज्ञानको देखका उनका हृदय नाचने लगा । हृदयमें वैराग्य उमड़ आया । वह बोले...
प्रभु ! मुझ पतितको उबारिये । मैं ऐसा पापी हूं जो 'प्राणोंके मोहमें अपनी बेटीका शब भक्षण करगया।'