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ऋषि क्षेत्रका
[१४५ 'पर्यटक बना । गांव-गाव पैरों चलकर वह सत्यका संदेश लोगों को सुनाता और उन्हें धर्म के कल्याणमई मार्गमें लगाता था।
सौगंधिका नामक नगरीमें शुक नामक परिव्राजक रहता था। बह शौचालक धर्मका उपदेश देता था। स्नान आदि बाह्य शुद्धि और मंत्रादि उच्चारण रूप वह आन्ताशुद्धि मानता था। थावश्चा पुत्र चुमने हुये उस नगरीमें पहुंचे । शुकसे उनका समागम हुआ। शुकने उनमे पूछा:---
"हे भगवन् ! आपके यात्रा है ? यापनीय है ? और क्या अध्यावाधपना तथा प्रासुक विहार है ?"
उत्ताचे थावच्च। पुत्र बोले-" हे शुक ! मेरे यात्रा, यापनीक अन्याबाध और प्रासुकविहार है।"
शुक-" हे भगवन् ! यात्रासे आपका मतलब क्या है ?'
था०-" हे शुक : सम्यक् दर्शन. ज्ञान. चारित्र, तप और मंयमादि योगोंमें तत्परता ही यात्रा है ! "
शुक- ' और प्रभू यापनी यमे आपका प्रयोजन क्या है ? " ___ था-" हे शुक ! यापनीय मेरे निकट दो नाहकी है-(१) इन्द्रिय यापनीय (२) नो:न्द्रिय यापनीय । श्रोतृ, चक्षु, प्राण, जिल्हा
और स्पर्श-यह पाचों ही इन्द्रिया विना किसी प्रकारके उपद्रवके. मरे वशमें हैं, इसलिये मेरे इन्द्रिय याश्नीय है। तथा क्रोध, मान, माया लोभरूप कषाय संस्कारोंमे कुछ तो मेरे क्षीण होगए है और कुछ शम गये हैं, इसलिए मेरे नाइन्द्रिय याश्नीय भी है।"