________________
Bis....
10000000010manarsimar.Muslmani Maun
१४६ । पतितोद्धारक जैनर्म।
शु०- अब अव्याचाधका स्वरूप बताइये "
था०- 'हे शुक ! वात, पित्त, कफ अथवा तीनोंके संक्रमणसे उत्पन्न होनेवाले रोग मुझे त्रास नहीं देने, यही मेरा अव्यायाध है।"
शु०-'प्रभो ! प्रासुक विहार भी निरूपिये।'
था०-'हे शुक ! मैं बाग बगीचे, मंदिर आदि स्त्री-पुरुषादि रहित स्थानोंमें रहता हूं, यही मेग प्रासुकविहार है !"
शु०- भगवान् ! बताइए क्या आप एक हैं, वो हैं, अक्षत हैं, अव्यय है, अवस्थित है या अनेक भूत भविष्यत् रूप हैं ?'
था- 'द्रव्यकी अपेक्षा मै एक हू तथा ज्ञानदर्शनकी अपेक्षा दो हूं। मेरे अनेक अवयव है. इस दृष्टि में अनेक हैं । आत्मप्र देशकी अपेक्षा अक्षत हूं, अव्यय हू और अवस्थित हूं। उपयोगकी अपेक्षा भूत, वर्तमान और भविष्यका ज्ञाता होने के कारण भृत वर्तमान और भविष्यरूप हूं।' ___यह सुनकर शुक संतुष्ट हुआ और बोला-'ज्ञानियोका कहा हुआ धर्म आप मुझे समझ इथे ।"
थावच्चापुत्र के निकट धर्मा स्वरूप हृदयगम करके शुकन माधु होगया । थावच्च पुत्र के साथ वह भी गाव गावमें धर्मोपदेश देता वूमने लगा। पुंडरीक पर्वतसे न यावच्चापत्र मुक्त हये तब वह उनके पास था। शुक्ने उम स: । ग्ख । ना. धना की !
शुक अनगार फि'ने फिन ल FIके उद्य में आ विगजमान हुये । उनके शुभागननी चान ग कर गजा शै तथा