________________
पतितोद्धारक जैनधर्म ।
१३२ ]
10-2018
उनकी बन्दना करके एक ओर बैठ गये । उनको देखकर मुनिराजने पूंछा - 'बत्स, किस फिकरमें हो ?'
कर्ण - हे नाथ ! हृदयमें एक ज्वाला जल रही है । अपनी शीतलगिरासे उसे बुझानेकी उदारता दिखाइये।'
मुनि- 'वत्स ! साधु स्वपर कल्याण करना ही जानते हैं ।' कर्ण - ठीक है प्रभो ! किन्तु दुनियां बड़ी दम्भी है, वह रुड़की उपासना करती है ।'
मुनि- 'उपासना नहीं, अपना पतन करती है। रूढ़िकी दासता विवेकहीनताका परिणाम है और विवेकहीन महान् पतित होता ही है।' कर्ण - 'रूढिके बिना मनुष्यका नैतिक जीवन कैसे पनपे ? सब तो ज्ञानवान होते नहीं ।'
मुनि-'भूलते हो बस, रूढ़िसे मनुष्यका नैतिक पतन होता है । जिस बातको वह स्वयं सत्य और उपादेय समझता है, उमीको रूढ़ि के भयके कारण वह नहीं करता और अपने को धोखा देता है।' कर्ण - 'महाराज, सो कैसे ?'
मुनि- 'देखो, आज लोग स्त्रियोंको भोगकी सामग्री मात्र समझते हैं और उनके वैयक्तिक जीवनको जरा भी महत्व नहीं देते। अब मान लो एक नरपिशाच किसी कुंवारी कन्याका शील अपहरण करता है और उसके गर्भ रह जाता है। वह नरपिशाच तो चार घड़ीका मज़ा लेकर अपने रास्ते जाता है । भोली कन्या अब रूढ़िका शिकार बनती है। गर्भको वह एक कलङ्क समझती है, क्योंकि दुनियां उसे बालक जन्मता देखकर इंसेगी और नाम धरेगी ।