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१३० । पतितोद्धारक जैनवर्म । मुख्य थी। उस दिन वह अशोकके पेड़ तले बैठी अपने कौमार जीवनकी घटना याद कर रही थी। अनायास वह बोली- ऐसा तो था ही उमका मुखड़ा और शरीकी आमा ! उसे देखते ही मेरे म्तनोंमें दूध झरने लगा। वह अवश्य मेरा ही पुत्र है !' ' यह कहकर का चुप हो फिर मोचने लगी। मातृस्नेहने उसे विहल बना दिया। मेरे क्षण वह ताकमे उठी और एक परिचा. रिकाको उ• ने कुछ आज्ञा दी।
कुन्ती फिर अपने ध्यान में लीन होगई। उसी समय एक वीर मैनिकने आकर प्रणाम किया। कुती चौक गई। उसने देखा यही वह युवक है जिसे देखकर उसका हृदय ममतासे रो उठा था । कुन्तीने नवागत क . आदर सत्कार किया । उसके मुग्वको गौरमे देवकर उमे दृढ़ निश्चय होगया कि यही मेरे कुमारी जीवनका पुत्र है । कु तीन मार कर पूछ। - वी. यु क ' तुमने अपने जन्ममे किम कुलको सुशोभित किया है "
सैनिक यह प्रश्न सुनकर अचकचा गया-बोला, ' मा मै तो राजा जरामिधुको ही अपना पिता समझना हु ।'
कुन्नी-समझने और होने में इत अर होता है युवक ! अकुलाओ मत । मै तुम्हें अम्म नित नहीं करना चाहता पा तुम्हारे जन्मके रहस्यका उदघाटन करन चाती है। शायद तुम यह नुन कर आश्चर्य करोगे कि अर्य : 'हु तुम्हारे पा और मैं तुम्हारी माना है
इके माथ ही कुनी री कथा रह सुन ई, जिसे