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महात्मा कर्ण। [१३३ हठात् रूड़िकी बलि वेदीपर वह अपने नवजात शिशुको उत्सर्ग कर देती है। देखो, यह मनुष्यका कितना भीषण पतन है ? नैतिक साहसके अभावमें वह कन्या उस अत्याचारीको दण्ड दिलाने और अपना जीवनसाथी बनाने के लिये लाचार नहीं करती !'
कर्ण-महाराज ! यदि ऐसा होने लगे तो वर्णशङ्करता फैल जावे और विवाह धर्मकी पवित्रता नष्ट होजावे !'
मुनि-'यहां भी तुम भूलते हो। वर्णशङ्करता अपनी कुल परम्परीण आजीविकाको त्याग देनेसे होती है। वय प्राप्त युवक-युवती यदि अपना जीवनसाथी स्वयं ढूंड़ते हैं, तो उसमें कौनसा दोष है ? विवाह मनुष्य जीवनकी सुविधाके लिये है और यह सुविधा स्वयं पति-पत्नी चुनने में अत्यधिक होगी। गांधर्व विवाह शास्त्रोक्त है ही। इस क्रियासे महिलाओंमें आत्मस्वातंत्र्य जागृत होगा और उनका जीक्न महत्वशाली बनेगा।'
कर्ण-'नाथ, फिर कुलकी रक्तशुद्धि कैसे रहेगी ?'
मुनि-'क्या बातें करते हो ? रक्त भी कभी किसीका शुद्ध हुआ है ? शरीर तो स्वभावसे अशुचि है। उसकी शुद्धिका एकमात्र उपाय धर्माराधना है, सत्यको उपासना करना है। पति-पत्नी न बनकर वैसे ही अंधाधुंध कामसेवन करना व्यभिचार है; किन्तु गांधर्व विवाह उससे मिल है। उसपर व्यभिचार जातको पापकला और अशुद्ध रक्तधारी बताना महान् मूर्खता है। व्यभिचार जात और विवाह जात दोनोंके शरीर एकसे होते हैं। उनमें कुछ अंतर नहीं होता। वे दोनों अपने शरीरोंको धर्मसे ही पवित्र कर सके हैं।