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मुनि भगदत्त। 'यज्जीव्यते क्षणमपि प्रथितमनुष्यैः,
विज्ञानशौर्यविभवार्यगुणैः समेतः । तस्यैव जीवितफलं प्रवदन्ति सन्तः,
काकोपि जीवितचिरं च बलिं च मुक्त।" "संसारमें एक क्षणमात्र भी क्यों न ना हो, पर वह जीना उन्हीं पुरुषोंका सफल है जो विज्ञान, शू वीरता, ऐश्वर्य और उत्तम२ गुणोंसे युक्त है और बडे बडे प्रतिष्ठित लोग जिनकी प्रशंसा करते हैं। यों तो जुठा स्वाकर कौआ भी जीता रहता है; पर ऐसे जीनेसे कोई लाभ नहीं।"
भगदत्तके दृढ़ निश्चयके सामने मंत्रियोंकी एक नी न चली। वास्तवमें भगदत्तको अपनी विशिष्टता प्रकट करना वाञ्छनीय था। लोग उसे नीच और हीन जातिका कहते ही है और बुरी निगाहसे देखते ही हैं, उसे उनकी यह धारणा अपना शौर्य प्रकट करके मिथ्या सिद्ध करना थी। बस, वह शीघ्र ही अपना लाव-लश्कर लेकर बनारसकी ओर चल पड़ा!
घमंडका सिर नीचा होता है । प्रकृति अन्यायको सहन नहीं करनी। जितारिके जातिमदने उसके सर्वनाशका दिन नजदीक ला रक्खा। उसे जरा भी होश न था कि भगदत्त उसपर चढ़ा चला
रहा है। जब उसने बनारसको चारों ओरसे घेर लिया तब कहीं उसे भगदत्तके आक्रमणका पता चला ! उसने भी अपनी सेना तैयार करानेकी आज्ञा निकाल दी; किन्तु मंत्रीने उसे समझाया कि शत्रुकी शक्तिका मन्वान किये बिना ही उसके सन्मुख मा डटना उचित