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११८] पवितोसारक जैनधर्म ।
आचार्य-'हा, महान् पाप ! मैं तुम्हें दीक्षा नहीं देसकता ।'
युवक-'किन्तु महाराज ! यह पाप तो मेरे पिताने किया है, मैंने नहीं।'
आ०-'भाई, कुछ भी हो । तुम व्यभिचार जातके तुल्य हो। शाखाविधिके प्रतिकूल मैं तुम्हें दीक्षा देकर धर्म नहीं डूबा सकता।'
युवक कुछ न बोला । वह उठकर दूसरी ओर चला गया । पाठको, यह कुमार कार्तिकेय है । उन्होंने अपने परिणामोंमें त्याग
और वैराग्यकी मात्राको अधिक बढ़ा लिया था। इसीलिये इस युवावस्था में साधु दीक्षा लेनेकी उन्होंने ठानी थी। सचमुच जबतक हृदय पवित्र न बना लिया जाय तबतक इन्द्रियोंपर अधिकार नहीं किया जासक्ता।
कुमारने आगे जाकर एक दिगम्बर जैनाचार्यको तप तपते देखा । वह उनके चरणोंमें जा बैठा। आचार्यका ध्यान भङ्ग हुआ! उन्होंने कुमारको 'धर्मवृद्धि' रूप आशीर्वाद दिया। कुमारने मस्तक नमाकर दीक्षाकी याचना करते हुये कहा-'नाथ, यधपि मेरा यह शरीर पिता-पुत्रीके शारीरिक संभोगका फल है, तथापि यदि धर्मका भाषात न हो तो आत्मकल्याण करनेका अवसर प्रदान कीजिये ।'
__ आचार्य बोले-'वत्स ! तुम्हारा विचार स्तुत्य है। तुम्हारे मातापिता कैसे भी हों, धर्म यह कुछ नहीं देखता। क्योंकि धर्मका निवास आत्मामें है, हाड़मांस और चमड़ेमें नहीं है। उसपर हाइमांस किसका शुद्ध होता है, जो उसपर विचार किया जाय ? व्यभिचार पाप है, व्यभिचारजातता पाप नहीं है। बेटी, बहनसे संभोग