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पविदारक
धर्म ।
उन्होंने जनताको राजाके इस अत्याचारकी भीषणता बतलाई । प्रजा एकदम राजाके विरुद्ध होगई । राजा घेर लिये गये । और पकड़ कर कार्तिकेयस्वामीके सामने उपस्थित किये गए । प्रजाने कहा - 'इस धर्मद्रोहीको हम प्राणदण्ड देंगे महाराज !' धर्मकी मूर्ति कार्तिकेय इस वेदना में भी मुस्करा कर बोले - " मैं इसे क्षमा करता हूं। तुम इन्हें छोड़ दो ।' प्रजाने बड़े आश्चर्यमे यह आज्ञा सुनी । धर्म उदाररूपका उसने इसमें दर्शन किया । राजा यह सुनकर लज्जाके मारे गल रहा था । उसने प्रायश्चित्त चाहा । गुरुवर्यने तप ही प्रायश्चित्त बताया और वह निम्नभावको दर्शाते हुए स्वर्गघामको सिधार गये:
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कोण जो ण तप्पदि सुरणरतिरिएहिं कीरमाणे वि । उसमे वि रहे तस्स खिमा णिम्मला होदि ॥
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भावार्थ- जो मुनि देव, मनुष्य, तिर्येच आदिकर रौद्र भयानक उपसर्ग होनेपर भी क्रोषसे तप्तायमान नहीं होते, उस मुनिके ही निर्मल क्षमा होती है।'
स्वामी कार्तिकेयने उत्तम क्षमा धर्मका पालन मरते मरते दम तक किया । लोगोंने उठाकर उनके शबको अपने मस्तकपर रक्खा और चन्दन- पुष्पादिसे उसे सम्मानित किया। उनकी स्मशानयाबामें हजारों आदमी साथ थे और सब ही महात्मा कार्तिकेयकी जय ' के नारे लगा रहे थे ।
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