Book Title: Patitoddharaka Jain Dharm
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 114
________________ ९६] पवितोद्धारक जैनधर्म। RiteHOHIHulaaorarimanamalner...0 itaire..... .. SHOTSID00041010 निष गुरु विराजमान थे और उन्हीं के निकट सेठ मिनदत्त बैठे हुये थे। देवपूजा करके अंजनचोर और सोमदत्त माली वहा पहुंचे। उन्होंने पहले सेठजीको नमस्कार किया और बादमें गुरु महाराजको ! देखनेवाले उनके मुंहकी ओर ताकने लगे। सेठ जिनदत्तसे न रहा गया । उन्होंने कहा- मूखों ! तुम्हें यह भी तमीज़ नहीं कि पहले गुरु महाराजकी वंदना की जाती है। अंजनने विनयपूर्वक कहा- हमने अपने गुरुकी ही पहले वंदना की है। सेठजी ! यदि माप दया करके जिनपूजाका महत्व और विमान विद्या सोमदत्तको न बताते तो हममे दीन हीन पापपंक लिप्त आत्माओंका भला कैसे होता ? कैसे हम यहा पहुंचने ? आप ही हमारे सच्चे हितैषी है ." ____ गुरुमहारामने कहा-'ठीक कहने हो, अजन ! लोक भेष और रूपकी पूजा करनेका दंभ करते है, परन्तु नंगे होकर जंगलमें जा बैठनेसे न कोई साधु होता है और न कोई शरीरसे हीन, व कुरूप होनेसे ही कोई पापी नहीं होता और न सुन्दर शरीर और उच्च भातिको पाकर कोई धर्मात्मा होजाता है। मनुष्यमें पूजत्व और वड़प्पन गुणोंसे आता है और गुणोंकी वृद्धि उनका विकास करनेसे होती है । सेठ जिनदत्त गुणवान महानुभाव हैं और तुम दोनों यद्यपि लोकमें नीच और हीन कहे जाते हो, परन्तु तुम हो भव्य धर्माकांक्षी ! गुणोंका भादर करना तुम जानते हो। और आदरविनय करना ही धर्मका मूल है। सिद्धसे पहले भरहंतकी विनय

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