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पवितोद्धारक जैनधर्म।
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निष गुरु विराजमान थे और उन्हीं के निकट सेठ मिनदत्त बैठे हुये थे। देवपूजा करके अंजनचोर और सोमदत्त माली वहा पहुंचे। उन्होंने पहले सेठजीको नमस्कार किया और बादमें गुरु महाराजको ! देखनेवाले उनके मुंहकी ओर ताकने लगे। सेठ जिनदत्तसे न रहा गया । उन्होंने कहा- मूखों ! तुम्हें यह भी तमीज़ नहीं कि पहले गुरु महाराजकी वंदना की जाती है।
अंजनने विनयपूर्वक कहा- हमने अपने गुरुकी ही पहले वंदना की है। सेठजी ! यदि माप दया करके जिनपूजाका महत्व
और विमान विद्या सोमदत्तको न बताते तो हममे दीन हीन पापपंक लिप्त आत्माओंका भला कैसे होता ? कैसे हम यहा पहुंचने ? आप ही हमारे सच्चे हितैषी है ." ____ गुरुमहारामने कहा-'ठीक कहने हो, अजन ! लोक भेष और रूपकी पूजा करनेका दंभ करते है, परन्तु नंगे होकर जंगलमें जा बैठनेसे न कोई साधु होता है और न कोई शरीरसे हीन, व कुरूप होनेसे ही कोई पापी नहीं होता और न सुन्दर शरीर और उच्च भातिको पाकर कोई धर्मात्मा होजाता है। मनुष्यमें पूजत्व और वड़प्पन गुणोंसे आता है और गुणोंकी वृद्धि उनका विकास करनेसे होती है । सेठ जिनदत्त गुणवान महानुभाव हैं और तुम दोनों यद्यपि लोकमें नीच और हीन कहे जाते हो, परन्तु तुम हो भव्य धर्माकांक्षी ! गुणोंका भादर करना तुम जानते हो। और आदरविनय करना ही धर्मका मूल है। सिद्धसे पहले भरहंतकी विनय