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पतितोदारक जनधन स्वामी होता है या नहीं ? यदि स्वामी होता है, तो उसे उस वस्तुका मनमाना उपयोग करनेका अधिकार होना चाहिये ।" मंत्री अपना वक्तव्य समाप्त करके बैठ गया। सभा निस्तब्धता छागई। पण्डित मण्डलीमें थोड़ी देरतक कानाफूसी होती रही। आखिर उनमेसे उग्र पण्डितने खड़े होकर सभापर दृष्टि दौडाई और राजाके आगे शीश नमा दिया। फिर वह बोले
“हमारे प्रजावत्सल राजाधिराज न्याय और बुद्धिमत्ताकी मूर्ति है । हमारे इस कथनका समर्थन उनके द्वारा उपस्थित किये गये प्रश्नसे होता है । साधारणसा प्रश्न है, किन्तु महाराज इस साधारणसे प्रश्नका निर्णय भी प्रजाकी सम्मति लेकर करते हैं, इसी लिये यह असाधारण है । सीधीसी बात है-जो जिस वस्तुका उत्पादक होता है वह उसका स्वामी और अधिकारी होता ही है। वह उस वस्तुका मनमाना उपयोग क्यों न करें ? सजनो! आप हमारे इस निर्णयसे सहमत होंगे।"
उपस्थित मण्डलीने 'महाराजकी जय बोलकर अपनी स्वीकृति प्रगट की। अब राजाकी हिम्मत बढ़ गई-गजा अनाचार पर तुला हुआ था--वह अपनी ही पुत्रीको अपनी पत्नी बनानेकी अनीति करना चाहता था । प्रजाकी अनुमति सुनकर वह मंत्रीमे बोला• मैत्रिन् ! अब कोई आपत्ति ननक बात नहीं है। प्रमा भी मेरे मससे सहमत हैं । अब विवाह सम्पन्न होने दो।"
मंत्रीने कहा- 'राजन् ! यह तो ठीक है किन्तु प्रमाके निकट यह विषय और भी स्पष्ट हपमें आजाना चाहिये।"