________________
V
व्यभिचारजात-धर्मात्मा ।
" न विप्रा विप्रयोरस्ति सर्वथा शुद्धशीलता । कालेननादिजा गोत्रे स्खलनं क न जायते ॥ संयमो नियमः शीलं तपो दानं दमो दया । विद्यन्ते तात्विका यस्यां सा जातिर्महती मता ।। " अर्थात - "ब्राह्मण और अब्राह्मणकी सर्वथा शुद्धिका दावा नहीं किया जासकता है, यह कहकर कोई भी रक्तशुद्धिका टिंढोरा नहीं पीट सक्का कि उसके कुलमें किसीने व्यभिचार सेवन नहीं किया और तत्सम्बन्धी दोष उसके कुलमें नहीं चला आया । क्योंकि इस अनादिकालमें न जाने किसके कुल या गोत्रका कब पतन हुआ हो ! इसलिए वास्तवमे उच्च जाति तो वही है जिसमें संयम, नियम, शील, तप, दान, दम और दया पाई जाती हो ।”
I
-" जैनधर्मकी उदारता पृ० १८ "
कथाएं:१ - कार्तिकेय । १-कर्ण ।