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HIRURUDEAUNDAUNLUDIOHIROHINIMUNARISHMIRI.ORRUCTUTORRRRRRRRRROUND
धर्मालाशदा कर्तव्यकी इतिश्री समज लेना अपने आपको धोखा देना है। क्योंकि मौनशोखमें सुख नहीं है। वह जबतक सहन होता है तबतक प्रिय लगता है। किंतु जहां इन्द्रियां शिथिल हुई और युवावस्था खिसकी कि वही भोगपभोग काले नागसे दिखने लगते हैं । भाइयो, यदि मौजशौकमें ही सुख होता तो बुढापेमें भी उनसे सुख मिलना चाहिये; परन्तु वह नहीं मिलता। इससे स्पष्ट है कि संसारके इन्द्रियजनित भोगोंसे सुख नहीं मिल सक्ता-वह उनमें है ही कहां? सुख वस्तुनः अपनेसे बाहर कहीं है ही नहीं ! आत्मा परसे जहां आकुलताका बोझ हल्का हुआ कि उसे सुखका अनुभव हुआ । सचमुच सुख प्रत्येक आत्माका निजी गुण है। यदि सुखी होना चाहते हो तो अपने भीतरके 'देव' को-' आत्माराम' को पहचाननेका प्रयत्न करो- तुम्हारा कल्याण होगा !'
निग्रंथाचार्यका यह धर्मो देश सुनकर सब लोग प्रसन्न हुये और किन्होंने अपनी शक्तिके अनुसार धार्मिक वा नियम भी लिये । थोड़ी देरमें भक्तों की संख्या घट गई। निर्ग्रन्याचार्य के पास इनेगिने आदमी रह गये। उससमय उन्होंने देखा कि तीन महाकुरूपा गेगीमी शूद्रा कन्यायें उनके सन्मुख हाथ जोडे खड़ी हैं । आचार्य महाराजने उन्हें भाशीर्वाद दिया।
वे शूद्रा कन्यायें उनके पाद-पद्मोंका आश्रय लेकर बोली" नाथ ! क्या हम-सी दीन-हीन व्यक्तियां भी सुख पानेकी मधिकारिणी हैं।"
निग्रन्थाचार्यका मुखकमल खिल गया। उन्होंने उत्तरमें कहा