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पतितोदारक जैनर्म। लक्ष्मीमतीको एक दिन ऐसा क्रोध आया कि वह स्वयं भागमे कूदकर जल मरी ! मरते समय भी उसके परिणाम रौद्र-विकराल थे।
सो वह वैसे ही कर स्वभाववाले पशुओंके जीवन में दुख भुगतती फिरी। मनुष्य जीवन में जो पशु बना वह मरने पर क्यों न पशु हो ? किंतु समय बीतने पर उस ब्राह्मणीका पशुमाव क्षीण होगया और मानवता उसमें पुनः जागृत हुई। अब कहो, पशु होकर भी जो मानवों जैसा विवेक दर्शाये, वह मानव क्यों न हो ? आखिर लक्ष्मीमतीका जीव फिर मनुष्य शरीमें आया । मगधदेशमें एक मल्लाह रहता था। उसीके घर उस ब्राह्मणीका जीव आकर जन्मा । वह उम मल्लाहकी काणा नामक कन्या हुई । प्रतिदिन वह नाव खेया करती और लोगों को नदी पार उतारा करती; किंतु दुनिया ऐसी कृतघ्न कि वह उस बेचारीको नीच समझकर हल्की निगाहसे देखती। काणा फिर भी कुछ बुरा न मानती । इस कृतनी दुनियाका वह बगबर उपकार करती-अपने मानव धर्मको वह उत्तरोत्तर विकसित कर रही थी। हठात् एक दिन सौभाग्य उसके सामने आ उपस्थित हुआ; किंतु वह सौभाग्य या उसी नंगे और मलीन रूपमें, जिसका उसने लक्ष्मीमतीके भवमें तिरस्कार किया था। वह बोली-' नाथ, मैंने आपको कहीं देखा है ?' तपोधन मुनिराजने उसे सब पूर्व कथा बता दी । काणा उसे सुनकर अपने संवेगको न रोक सकी। मनुष्य जीवनको सफल बनानेके लिये वह माता-पिताके मोहको खो बैठी ! सारे विश्वको उसने अपना कुटुम्ब बना लिया और उसकी सेवा करना अपना धर्म ! वह भिक्षुणी होगई