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२०२] पबित्येदारक जैन ।
(२) मा०-'देवालयसे पवित्र स्थानमें शूद्र ! सो भी कंगाल और कोटी 1. जैन- देवालय पतितपावन है, वहां पतित और नीच न मावतो उद्धार किनका हो?'
-'धर्मका उपहास न करो।
यह धर्मका उपवास नहीं, सचा आदर है ! रोगीको ही औषधि पावश्यक होती है । भच्छा भला आदमी औषधिका क्या करे ? इसीतरह पापीको पापसे छूटनेके लिए धमकी आराधना करना चाहिए।'
ब्रा०-'तभी तो जैनी नास्तिक कहे गये । जाओ, वह बड़े नास्तिक तुम्हारे गुरु आये ।'
जैनीने देखा निम्रन्याचार्य आरहे हैं। उसने उनको नमस्कार किया और चैत्यालयमें भाकर वह उनकी धर्मदेशना सुनने लगा। मोवाओमसे एक भक्तने पूछा- ये दयालु प्रभु ! आज मैंने तीन कुरुपा कन्यायोंको जिनेन्द्रकी पूजा करते देखा है। नाथ, वे महान दरिद्री और रोगिल हैं । उनको देखकर मेरा हृदय रोता और सता है । प्रभू ! इस भेद्रका रहस्य बतानेकी कपा कीजिये।'
निर्य० बोले-मव्योत्तम ! संसारमें फिरता हुमा यह ,जीव ब्रा और नीच सब ही गतियोंने जाता है । जैसे कर्म करता है वैसे फल पाता है। इन श्रद्रा कन्याोंने पूर्व जन्ममें भाभ कमाई.की उसीका फल अब मोग रही है। किंतु अब उनका जीवन सुपर गया