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परिवोद्धारक जैनधर्म ।
उधर जब साधु मेतार्यका माथा फटा तो उससे एक बड़ी आवाज हुई । उसको सुनकर पासवाली छतपरसे पंख फड़फड़ा कर एक क्रोंच पक्षी उड़ा और उसकी चौचसे छूटकर सोनेका फूल सुनारके आगे आ गिरा ! सुनार यह देखकर स्थंभित होरहा, उसके काटो तो खून न था ! अब उसे अपनी गळतीका मान हुआ - अपनी नृशंसता देखकर उसका हृदय टूक टूक होरहा था। वह खूब ही पश्चाताप करने लगा और अपने कृत पापसे छूटनेके लिये वह जिनेन्द्र भगवान् की शरण में पहुंचा | सुनार साधु हो गया और आत्मशोध करने कया । परिणामस्वरूप वह समाधिमरण कर उच्च गतिको प्राप्त हुआ
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साधु मेतार्य चाहते तो कोंचपक्षीका पता बताकर अपने प्राम बचा लेते; किन्तु वे तो अहिंसक वीर थे। अपने स्वार्थ- शरीर मोहके लिए वह कौंचपक्षी के प्राणोंको कैसे संकटमें डालते ? सुनार उसे पकड़ता, मारता । उसे भी पाप लगता । उधर कौंचपक्षी रौद्र परिणामोंसे मरता तो और भी दुर्गतिमें जाता ! उत्तरोत्तर सबका बुरा होता ! एक जैन मुनि भला कैसे किसीका बुरा करे ? वह तो समताभावका उपासक है और उसके लिये अपना सर्वस्व अर्पण करने के लिए तत्पर रहता है। साधु मेतार्यने इस सत्यको मूर्तिमान बना दिया। धन्य थे वह !
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