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जन्मान्य चाण्डाली दुर्गन्धा
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जामोंको धर्ममें स्थिर किया ! निस्सन्देह सच्चे साधु, प्राणीमात्रका उपकार करना अपना कर्तव्य समझते हैं ! अभिभूतिके उपदेश से उस चाण्डाल कन्याने पंच अणुव्रतों को धारण कर लिया और उसी समय समताभावसे उसने सन्यास मग्ण किया ! श्रेणिक ! जैसे प्राणीके अन्तिम समयमे परिणाम होते है वैसी ही उसकी गति होती है। चाण्डालपुत्रीको मरते दम तक अभिभूति मुनिने धर्मका स्वरूप समआया था, उसके भाव धर्ममे ओतप्रोत थे ! वह उन भावोंको लेकर मरी सो वैसे ही शुभभावके धारी चम्पानगरके ब्राह्मण नागशर्माके पुत्री हुई। देखा श्रेणिक वह चाण्डाली धर्मके सहायसे परिणामों को उज्ज्वल बनाकर ब्राह्मणी होगई "
श्रेणिकने मस्तक नमाकर कहा-' दीतचन्धो ! आप और आपका धर्म ही इस भयंकर भव वनवे एक मात्र शरण है ।"
श्रेणिकने वीर वाणीमें यह भी सुना कि उसी जन्मात्र चाण्डालोकt ata फिर आगे बराबर कल्याण मार्गमै उन्नति करता गया और आखिर वही महात्मा सुकुम ल हुआ, जिनकी पुण्यकथा हरकोई जानता और मानता है। श्रेणिक यह रूच कुछ सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुआ। वह उठा और उसने प्रभु महावीर के पादपद्मोंमें शीश नाकर प्रणाम किया ।
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राजगृहको लौटते हुये वह बराबर धर्मके पतितपावन रूपका चितवन करता रहा ! उसका हृदय निरन्तर यही कहता-' धन्य है प्रभू महाबीर और धन्य है उनका धर्म जो पतित भीवका भी उद्धार करता है,
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