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पतिवोक्षारक जैनधर्म । ____ यमपाल के भीतरका पुण्यतेज चमक रहा था-वह निशा था ! राजाके रोषका उसे जरा भी भय नहीं था। वह भी दर्पके साथ बोला-'राजन् ! धर्मासनपर बैठकर धर्मका उपहास मत करो। धर्म जाति और कुल, धनी और निर्यनी-कुछ भी नहीं देखता । सीर जैसी नगण्य वस्तुमें मोती उत्पन्न होता है ! धर्म-स्वातिकी बून्द मुनिमहाराजके अनुग्रहसे मुझे मिल गई है। मुझे सीप जैसा नगण्य लोक भले कहे, परन्तु निश्चय जानो, राजन् ! मेरे रोमरोममें धर्म समा रहा है ! मेरा वही सर्वस्व है ।
राजा आग बबूला होकर बोला-'अच्छा, तो रख अपने सर्वम्वको ! और चख अपनी धार्मिकताका फल-समुद्रके अनन्तगर्भमें विलीन होकर !'
चाण्डाल उद्वेगमें-आत्मावेशमें था । बड़े दर्पसे उसने कहा"तैयार हूं अपने धर्मका मजा चखनेको । पर राजन् ! एक बार सोच तो सही ! चाण्डाल कर्म-मनुष्य मारना, मेरा धर्म कैसे है ? उसके करनेके कारण ही तो लोग मुझे नीच और घृणा योग्य समझते हैं । क्या धर्म करनेसे कोई नीच और घृणित होता है ? फिर धर्म सबके लिये एकसा है। यदि चाण्डालकर्म धर्म है, तो वह सबके लिये एकसा होना चाहिये । फिर उस कर्मको चाण्डालोंतक ही क्यों सीमित रक्खा जाय ?....
राजा-'चुप रह-बक मत! यह ढीठता ! सिपाहियो ! लेजाओ इसे और पटकदो समुद्र में राजकुमार के साथ इसको भी! राजाज्ञाका उल्लंघन नहीं होसक्ता।