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जन्मान्ध चाण्डाली दुर्गन्धा । ... [५९
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जन्मान्ध चाण्डाली दुर्गन्धा।।
पतितोद्धारक भगवान महावीर जैन तीर्थहरों में सर्व अन्तिम थे। आजसे लाभग ढाईहजार वर्ष पहले वह इस भारतभूमिको अपनी चरण-रजसे पवित्र कर रहे थे। मगधका राजा श्रेणिक बिम्बसार उनका समकालीन और अनन्य भक्त था। एक दफा भगवान महावीर विहार करते हुए मगधकी राजधानी राजगृहके निकट अवस्थित विपुलाचल पर्वतपर आ विराजमान हुये। राजा श्रेणिकने उनके शुमागमनकी बात सुनी । वह शीघ्र ही उत्साहपूर्वक प्रभ वीरकी वन्दनाके लिये गया। भगवान महावीरको नमस्कार करके वह उनके पादपद्मोंमें बैठकर चातककी भांति धर्मामृत पानेकी प्रतीक्षा करने लगा।
भगवानकी दीनोद्धारक वाणी खिरी। श्रेणिकको उसे सुनते हुये अमित आनन्दका अनुभव हुआ। उसे अब दृढ़ निश्चय होगया कि धर्म वह पवित्र वस्तु है जो अपवित्रको पवित्र और दीन-हीनको महान् लोकमान्य बना देता है। मनुष्य चाहे जिसप्रकार जीवन परिस्थितिमें हो, वह धर्मकी आराधना करके जीवनको समुन्नत बना सकता है-'वसुधैव कुटुम्बकम्' की नीतिका अनुसरण करके वह लोकप्रिय होता है । इस सत्यको जान करके श्रेणिकके मनमें यह जिज्ञासा हुई कि वस्तुतः क्या कोई दीन हीन धर्मकी शीतल छाया भाकर परमोत्कषको प्राप्त हुआ है ! उन्होंने भगवानसे अपनी शहा
x पुण्याश्रय कथाकोष पृ. १०९ व हरिवंशपुराण पृ. ४१८॥