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पतितोलरकन।
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निवेदन की और उत्तरमें उन्होंने सुना-"एक नहीं, अनेक उदाहरण इसतरहके जगतमें मिलने है।"
श्रेणिकने कहा-"प्रभू । मुझे मी एकाध सुना दीजिये।"
भगवानने उत्तर दिया- 'वत्स ' राजकुमार अभयके पूर्वमव तुमने सुने है। जातिमदमें मत्त वह किस तरह अपने एक पूर्वभवमें धर्मसे पराजमुख था । एक श्रावकने उसका यह जातिमदका नशा उतार फेंका था और उसे सुदृष्टि प्रदान की थी।"
श्रे०-"हा, नाथ । यह तो मैं सब सुन चुका है और मुझे जातिकुलकी निस्सारता खुब *च गई है। अब तो कौतूहलवश यह पूछ बैठा हूं।"
“श्रेणिक, तुम दृढ़ श्रद्धानी हो। तुम्हारा प्रश्न प्रशंसनीय है। माओ. सुनो, तुम्हें धमेक पतितोद्धार रूपके उदाहरण बतायें ?"
श्रेणिकके प्रश्नके उत्ता में सर्वज्ञ प्रभू महावीरकी को वाणी खिरी उसे सब ही उपस्थित जीवोंने प्रसन्नचित्त होकर सुना। मगवद्वाणीमें उन्होंने सुना कि कोई भी प्राणी यह चाहे कि मैं उन्नतिकी चरमसीमाको एकदम प्राप्त करल तो यह असंभव है । प्राणी धीरे धीरे उमति करके पूर्णताको प्राप्त होता है। प्राणियोंकी आत्मायें मन ही एक समान ज्ञानदर्शनरूप है। उनके स्वरूप और शक्तिमें तिल मात्रका अन्तर नहीं है ! किन्तु इच्छा-पिशाचीके कारण वह अपने स्वभावअपने धर्मसे दूर भटक रहे हैं। कोई ज्यादा दर भटका है और कोई कम । किसीकी इच्छायें ज्यादा है, उसके कषाय प्रवृत्ति अधिक है, वह भामरूपसे बहुत दूर है। इसके विपरीत जिसकी इच्छायें