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पतितोद्धारक जैनधर्म
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पके बोध कराने में वह पाप समझती है। मैं पूछता हू, तुम अपनी एक मूल्यवान् वस्तु एक पड़ोसीके यहा भूल आओ और अन्य विषयों में ऐसे रम जाओ कि उसकी सुध ही न लो । अब बताओ, क्या तुम्हारे डोमी यह धर्म नहीं होगा कि वह तुम्हें तुम्हरी मूली हुई वस्तु बतला दे उसे तुम्हें प्राप्त करादे
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श्रे०-" नाथ ! अवश्य ही यह उसका कर्तव्य होगा । "
होगा न वह तो उसीकी वस्तु है। बस, श्रेणिक ' टीक हा धर्म भी प्रत्येक आत्माकी अपनी निजी वस्तु है । वह उसका अपना स्वभाव उसे वह भूला हुआ है। अब एक धर्मज्ञका यह कर्तव्य है कि वह उन्हें उनकी भूल सुझा द और धर्मका बोध उन्हें कराद । चाण्डाल शद्र और स्त्रिया यदि अपनी भूलसे धर्मक मर्मका नहीं समझ हुय है तो तुम तो ज्ञानी हो धर्मज्ञ हो उन्हें आत्म बोध कराओ । जैन श्रमण सदा यही करते है । सुना, एक कथा बताऊ । एक दफा चपामगरीमें एक चाण्डाल रहता था । नील उसका नाम था 1 कौशाम्बी नामकी उसकी पत्नी थी। उन दानोंके एक पुत्री हुई। पर दुर्भाग्यवश वह ज मसे अभी थी और उसपर भी उसके शरीग्से दुर्गध अती थी। पहले तो बह चाण्डाल के घर जन्मी, सो लोग उसे वैसे ही दुरदुराते थे। उसपर कोढ़ में खाजकी तरह वह दुगधा थी । उस भाई बन्धु भी उसे पास न चेटने देते थे। बचारी बड़ी परेशान थी । वह दुखिया अकेली एक जामुनके वृक्ष तले पडी२ दिन करती थी किन्तु सदा दिन किमी+ एकसे नहीं रहत । चम्पानगरी में सूर्य मित्र और अभिभूति नामके दो जैन मुनि भय । सूर्यमित्रने वहा उपवास माड़ा मो वह नगर में आहारके लिये नहीं