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४८] पतितोदारक जैनधर्म।
राजदरबारमें अपार जनसमुदाय एकत्रित था । राजसिहासन पर राजा महाबल बैठे हुये थे। पासमें ही यमपाल भी बैठा हुआ था। राजाने शांतिभंग करते हुये कहा-'सज्जनो ! लोकमें गुणोंकी पूजा होती है-जाति, कुल, ऐश्वर्यादिको कोई नहीं पूंछता । निर्गुणीको पूछे भी कौन ? लोकमें प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा गुणों के कारण ही मनुष्य प्राप्त करता है । आज आपके सम्मुख यमपाल मौजूद है । चाण्डालोंके घर इन्होंने जन्म लिया अवश्य; परन्तु अपने आत्मधर्म-अहिंसाभावको प्रगट करके यह लोकमान्य हुये हैं । देवने इन्हें कालके मुखसे बचाकर मेरा और मेरे राज्यका उपकार किया है। यमपाल एक आदर्श श्रावक है और उनका आदर करना हमारा अहोसाग्य !' ___इतना कहकर राजा महाबलने यमपालका अपने हाथोंमे अभि षेक किया और उन्हें वस्त्राभूषणोंमे समलंकृतकर लोकमान्य बना दिया । धन्य है चाण्डाल यम् पाल, जो धर्मकी आराधना करके इस गौरवको प्राप्त हुये ! अपने धर्मके लिये उन्होने अपने प्राणोंको न्योछावर करनेकी ठानी। उनमे धर्म प्रकाशमान है-चाण्डाल थे वह तो क्या । उन्होन तो अपने आदर्शमे जाति सम्बन्धी उच्चता नीचताकी कल्पनाओंको धर श यी बना दिया । मिथ्यादृष्टी जातिको शाश्वत् माननेकी कल्पनाके विरुद्ध प्रत्यक्ष प्रमाण पाकर भले ही कुढ़ें, पर यमपाल स्वयं ही उनके सिद्धान्तका खण्डन है ! धर्मका यही महत्व है।