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पविवोद्धारक जैनधर्म
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कैसा ? धर्म ब्राह्मणके लिये है और एक चाण्डालके लिये भी है । हिंसी-बोरी-असत्य - कुशील आदि पापोंमें लिप्त होकर एक ब्राह्मण चाण्डालसे भी गया बीता हो सकता है और एक चाण्डाल हिंसा - सत्य - शीळ आदि धर्मगुणोंको धारण करके जगतपूज्य बन जाती है । इसलिये एक ब्राह्मणको तो जीव मात्र पर दया करनी चाहिये । शरीरकी बाहरी अशुचिको देखकर वह कैसे किसीसे घृणा करेगा ? सखा ब्राह्मण जानता है कि शरीर तो जड़से ही अशुचिताका घर है - मैलका थैला है। इस गरीब चण्डको तुमने व्यर्थ ही मारा-पीटा। समझाओ इसे धर्मका स्वरूप और करने दो इसे अपनी आत्माका कल्याण |
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गुरूमहाराजके इस धर्मोपदेशका प्रभाव उपस्थित मण्डली पर खूब ही पड़ा । राजा गुणपालका चोला वैराग्यके गाढ़े रंगसे खूब रंग गया था । उन्हें संमार में एक घड़ीभर रहना दूभर होगया। अपने पुत्र वसुपालको उन्होंने राजपाट सौंग और वह स्वयं उन नुनिराजके निकट मुनि होगये । राजाके इस त्यागका प्रभाव अन्य लोगों पर भी पड़ा। उन्होंने भी यथाशक्ति व्रत ग्रहण किया । चण्डका हृदय भी करुणा से भीज रहा था । साधु म०के पैरों पर वह गिर कर बोला-' नाथ ! मुझ दीनको भी उबारिये ।
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कहना न होगा कि साधु महाराजके निकट चण्डने अहिंसाव्रत ग्रहण कर लिया । उसने अब किसी भी जीबको न सतानेकी दृढ़ प्रतिज्ञा कर ली । पर्व दिनों पर वह उपवास भी करता था । शुद्ध-सादा जीवन वह व्यतीत करने लगा । वह पूरा धर्मात्मा हो गया । और उसके धर्मात्मापनेका प्रभाव उसके कुटुम्बियों पर भी
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