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पतितोद्धारक जैन धर्म |
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रक्षा के भाव से उसके रोम-रोम से प्रसन्नता निकल रही थी । किन्तु
उसके साथी मुनि घातक और चोर सिपाहीका बुरा हाल था । वह अपनी जान जानेके भयमे विह्वल था । कुछ उसे चण्डका भी ध्यान आगया । वह चाण्डालसे बोला- भाई ! तू मुझे मारकर -सुखी क्यों नहीं होता? मैं तो मरूंगा ही तू नाहक अपनी - जान देता है ! "
चण्ड उसकी बात सुनकर हंस पड़ा। और उत्तर में उससे कहा- भाई ! मुझे भी अपनी जान प्यारी है और मैं उसे अपनी विसात जाने न देता | किन्तु मैं देखता हूँ कि उसका मोह करनेसे मेरी उससे भी अधिक मूल्यकी प्यारी वस्तु खोई जाती है । उसकी रक्षा मैं करूँगा। मरनेका मुझे जरा भी डर नहीं है ।"
सिपाही यह सुनकर चंड मुंडकी ओर ताकने लगा । उसकी इस विवशतापर चंड और भी हंसा । वह बोला -" अरे भोले ! तु अभी शरीर के मोहमें ही पड़ा है, जिसका मिलना दुर्लभ नहीं है । देख तू यह कुरता पहने है। यह फट जायगा । तू इसे फेंक देगा और दूसरा नया पहन लेगा । ठीक ऐसे ही हमारे भीतर के देवताआत्माराम का यह शरी चोला है - यह नष्ट होगा तो दूसरा नया मिलेगा | फिर इसके लिये चिंता किस बातकी ! हमें तो अपना कर्तव्य - अपना धर्म - पालन करना चाहिये ।"
सिगहीको अब कुछ होश आया | चंडको यह देखकर प्रस
अंता हुई। वह बोला-' माईं ! धर्मका माहात्म्य ऐसा ही है । धर्म किसी को कष्ट देना नहीं सिखाता। मैं अपना धर्म पागा । प्राणीकों
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