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________________ ५६ ] पतितोद्धारक जैन धर्म | 417dian रक्षा के भाव से उसके रोम-रोम से प्रसन्नता निकल रही थी । किन्तु उसके साथी मुनि घातक और चोर सिपाहीका बुरा हाल था । वह अपनी जान जानेके भयमे विह्वल था । कुछ उसे चण्डका भी ध्यान आगया । वह चाण्डालसे बोला- भाई ! तू मुझे मारकर -सुखी क्यों नहीं होता? मैं तो मरूंगा ही तू नाहक अपनी - जान देता है ! " चण्ड उसकी बात सुनकर हंस पड़ा। और उत्तर में उससे कहा- भाई ! मुझे भी अपनी जान प्यारी है और मैं उसे अपनी विसात जाने न देता | किन्तु मैं देखता हूँ कि उसका मोह करनेसे मेरी उससे भी अधिक मूल्यकी प्यारी वस्तु खोई जाती है । उसकी रक्षा मैं करूँगा। मरनेका मुझे जरा भी डर नहीं है ।" सिपाही यह सुनकर चंड मुंडकी ओर ताकने लगा । उसकी इस विवशतापर चंड और भी हंसा । वह बोला -" अरे भोले ! तु अभी शरीर के मोहमें ही पड़ा है, जिसका मिलना दुर्लभ नहीं है । देख तू यह कुरता पहने है। यह फट जायगा । तू इसे फेंक देगा और दूसरा नया पहन लेगा । ठीक ऐसे ही हमारे भीतर के देवताआत्माराम का यह शरी चोला है - यह नष्ट होगा तो दूसरा नया मिलेगा | फिर इसके लिये चिंता किस बातकी ! हमें तो अपना कर्तव्य - अपना धर्म - पालन करना चाहिये ।" सिगहीको अब कुछ होश आया | चंडको यह देखकर प्रस अंता हुई। वह बोला-' माईं ! धर्मका माहात्म्य ऐसा ही है । धर्म किसी को कष्ट देना नहीं सिखाता। मैं अपना धर्म पागा । प्राणीकों 5
SR No.010439
Book TitlePatitoddharaka Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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