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१६] पतितोदारक जैनधर्म ।
'दीलायोग्यास्त्रयों वर्णाश्चतुथश्च विघोचितः ।
मनोशकायधर्माय मताः सर्वेऽपि जन्तवः ।' यशपिताको सन्तानमें फरक तो नजर नहीं पाता। जिसप्रकार गधे और घोडेके सम्बन्धसे पैदा होनेवाली गधीकी सन्तान भिन्न २ तरहकी होती है, उस प्रकार ब्राह्मण और शदके सम्बन्धसे पैदा होनेवाली ब्राह्मणीकी सन्तान में अन्तर नहीं होता, क्योंकि अगर अन्तर होता तो संस्कारादि क्रियाओंकी क्या आवश्यकता थो ?"
"क्रियाविशेषादिनिबन्धन एव ब्राह्मणा दिव्यवहार:।............ नापि संस्कारस्यास्य शूद्रपालके कर्तु शक्तितस्तत्रापि तत्प्रसङ्गात् । किञ्च सस्कारात्माग्ब्राह्मणकालस्य तदस्ति न वा ? यदस्ति संस्कारकरण वृथा। अथ नास्ति तथापि तद् वृथा, अब्राह्मणस्याप्यतो ब्राह्मण्यसम्भवे शूद्रबालकस्यापि तत्सम्भव : केन वार्यत"
" इसलिये कर्मसे ही ब्राह्मणादि व्यवहार मानना चाहिये ।.... सस्कार में भी जाति नहीं है क्योंकि सस्कार तो शूद्र बालकका भी किया जासकता है-उसमें सस्कार करानेकी योग्यता है । मच्छा, यह बताइये कि संस्कार के पहले ब्रह्मण बाळक ब्राह्मण है या नहीं ? मगर है, तो संस्कार करना वृथा है। मगर नहीं है तो और भी वृथा है, क्योंकि जो ब्रह्मण नहीं है उसे संस्कारके द्वारा ब्राह्मण कैसे बना सकते हैं ? अब्राह्मण मगर सस्कार से ब्राह्मण बन सके तो शुद्र बालकके संस्कारको कौन रोक सकता है ?” -प्रमेयकमलमार्तण्ड ।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जनधर्ममें मनुष्यों में कोई मौलिक भेद नहीं माना है, जिसके माधारसे कोई ऊँच और नीच ही बना रहे, प्रत्युत जातिको कर्मानुसार मानकर प्रत्येक मनुष्यको मात्मोन्नति करने देनेका अवसर प्रदान किया है।