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पतितोद्धारक जैन धर्म ।
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चार्य बताते है । (श्राऽपि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्मकिल्विषात् ) इसीलिये ऊंची मानी जानेवाली जातियों के मनुष्योंको चेतावनी देते हुये आचार्य कहते है :.
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'चाण्डालोsपि व्रतोपेतः पूजितः देवतादिभिः । तस्मादन्यैन विमाद्यैर्जातिगव विधीयते ॥ ३० ॥ '
अर्थात् - ' व्रतोंसे युक्त चाण्डाल भी देवों द्वारा पूजा गया है। इसलिये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्योको अपनी जातिका गर्व नहीं करना चाहिये ।
किन्हीं का ऐसा भी भ्रम है कि लोक में जातिगत उच्चता और नीचता जीव के पूर्व संचित उच्च और नीच गोत्र कर्मका संक्रमण गोत्र कर्मके कारण है । इसलिये नीच गोत्र के होता है । उदयमें रहने के कारण नीच लोग धर्मधारण
करनेकी पात्रता नहीं रखते । किन्तु यहां वह भूलने है। जैन सिद्धातमें गोत्र कर्मका जो स्वरूप माना गया है, उससे यह बात बनती ही नहीं। देखिये, श्री अकलंकदेवजी 'रामवार्तिक' में ऊंच नीच गोत्रकी व्याख्या निम्नप्रकार करते है -
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यस्योदयात् लोकपूजिनेषु कुलेषु जन्म तदुच्चैर्गोत्रम् | गर्हितेषु यत्कृतं तन्नीचैर्गोत्रम् ॥
गर्दितेषु दरिद्राऽप्रतिज्ञातदुःखाः कुलेषु यत्कृतं प्राणिनां जन्म तनीचैर्गोत्रं प्रयेतव्यम् ।
इससे प्रगट है कि जो जीब पूजित - प्रतिष्ठित कुलोंमें जन्म