________________
HIRUBIRIDIUSUSHBOOrl
Dimun.MARI.INHAHIM..IMANDARMA
पतिकोतारक मार्ग शूद्र नहीं हैं (अर्थात् वे एकदम साधु नहीं होसह) परन्तु म्लेच्छों
और शुद्रोंके लिए भी सर्वथा मार्ग बन्द नहीं है क्योंकि उस जीवोंकी संकल्पी हिंसासे आजीविकाका त्याग करके कछ कालमें म्लेच्छ आर्य होसकता है और शूद्रकी आजीविकाके परिवर्तनसे शूद्र विज होसकता है. ..ब्राह्मणसे लेबर चाण्डाल और म्लेच्छतक अवत सम्यग्दृष्टि रूप चतुर्थ गुणस्थान के धारक ( जैनी गृहस्थ ) होसकने है। मासोपजीवी म्लेच्छ अपनी वृत्तिका परित्याग करके जिस वर्णकी आजीविका करेंगे, कुछ कालके पश्चात उस ही वर्णके आर्य होनावेंगे।" ( जैन हितैषी भा० ७ अंक ६) अस्तु । अब हम पाठकोंके सम्मुख ब्राह्मण और बौद्धोंक प्राचीन जैन
माहित्यसे ऐमे उल्लेख उपस्थित करते हैं, भारतीय साहित्य जैन- जिनसे जैन संघकी उपर्युल्लिखित उदारताका धर्मको पतितोद्धारक पोषण होता है। यदि प्रो० ए० चक्रवर्ती के प्रगट करते हैं। मतानुमार वैदिक साहित्य के प्रात्यों' को
जैनी माना जाय, तो 'अथर्ववेद के वर्णनसे स्पष्ट है कि प्राचीन कालमें जैन धर्मके अनुयायी हीन जातियोंके लोग भी होते थे।' हिन्दु ‘पद्मपुराण' से भी वही प्रगट होता है। उसके 'भूमिखण्ड ' (अ० ६६ ) में दिगम्बर जैन मुनिके द्वारा धर्मके स्वरूपका विवेचन कराते हुये यह भी कहलाया है कि:
१-अग्रेजी जनगनट, भा० २१:१० १६१६ "भ० पार्धनाथ" की प्रस्तावना।