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४.] पतितोद्धारक भैनधर्म ।
यमपाल कहीं बाहर गया था। रास्ताकी थकान उतारने के लिये वह एक पेड़ तले जरा पड़ रहा । उसने पांव मीधे किये ही थे कि उसे एक जोरकी फुपकार सुनाई दी। वह झटमे उठा तो सही पर यमका घातक वार उस पर हो चुका था। पेड़की जडमें रहनेवाले काले नागने उसे डंस लिया था।
बेचारा यमपाल हक्का-बक्का हो-प्राण लेकर सीधा घरकी ओरको भागा । भागने हुये उसे एक ऋद्धिधारी जैन मुनि दिखाई दिये । यमपाल के पैर लड़खड़ा रहे थे । दयाकी मृतिन्वरूप उन साधुको पाकर वह उनके चरणों में जा गिरा। माधुको उमकी दशा समझनेमे देर न लगी। वे एक बड़े योगी थे और उनकी योगनिष्ठासे यमपालका सर्पविष दूर हो गया ! वह ऐसे उटा मानो सोने मे जाग गया हो । किन्तु साधु महाराजको देखकर उसे आपबीती सब याद आ गई। वह गद्गद होकर उनकी चरणरजमे अपने को पवित्र बनाने लगा। उसने जाना--यही तो उसके जीवनदाता हैं।
___ साधु अपना और पराया उपकार करना जानने है। उन साधु महाराजने यमपालको जीवनदान ही नहीं दिया बल्कि उसके जीवनको उन्होंने सुधार दिया। वह बोले- 'वत्स ! तुम कौन हो ? क्या करने हो ?' यमपालने मीधसे अपना हिंमरूप उन साधु महा. गज पर प्रकट कर दिया । उस पर साधु बोले-' अच्छा वत्स ! बताओ, क्या तुम्हें मरना प्रिय था ?'
चाण्डाल बोला-'नहीं, महाराज !' साधुने फिर कहा- यदि यही बात है यमपाल, तो जरा सोचो, दुसरेको मारनेका तुम्हें