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यमपाळ चाण्डाल । क्या अधिकार है ? क्या दुसरेको अपना जीवन
प्यारा नहीं है ?" यमपाल निरुत्तर था । उसके हृदय में विवेकने उथल-पुथल मचा दी थी। अब उसे होश आया था अपने भीषण कर्मका ! वह एकबार फिर साधु महाराजके चरणोंमें आगिरा और अपने नेत्रोंसे जलकी नदी बहाने लगा । साधुने उसे ढाढस बंधाया और मनुष्य कर्तव्यका उसे बोध कराया ।
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यमपालने अपने कियेका परिशोध कर डालना निश्चित किया । वह बेचारा चाहता तो यह था कि मैं अब कभी किसीके प्राण न लूं, परन्तु राज आज्ञाके सन्मुख वह लाचार था । प्राचीनकालमें यह नियम था कि कोई भी मनुष्य अपनी आजीविका - वृत्ति विना राजाकी आज्ञाके बदल नहीं सकता था । यमपाल बेचारा चांडाल ! कौन उसे राजासे आज्ञा प्राप्त कराये और कैसे वह अपनी आजीविका बदले ! अपनी इस असमर्थताको देखकर उसने पर्व दिनोंपर हिंसा न करनेकी प्रतिज्ञा लेकर सन्तोषकी सांस ली ।
साधु महाराजके पैर पूजे और उनसे बिदाले यमपाल खुशी खुशी अपने घर गया । घरके लोगोंको उसने यह सारी घटना कह सुनाई ! वे सब ही सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और साधु महाराजके उपकारने उनके हृदयों में क्रांति मचा दी । उनमें से भी किसी किसीने यमपालके समान अहिंसा व्रतको ग्रहण किया । प्रकृतिकी जरासी नटखटीने उनके जीवन बदल दिये। धर्मका बीज उनके हृदयमें बो दिया ! अब वह जीवनका ठीक मूल्य आंकने में समर्थ हुये, उनके हृदय शुद्ध होगये ।